New Delhi, Varsha Chamoli

चार दिनों तक मनाया जाने वाला छठ पर्व भगवान सूर्य और छठी मैया को समर्पित है इस पूजा को चौथे और आखिरी दिन विशेष रूप से उषा अर्थ के रूप में जाना जाता है छठ पूजा की शुरुआत नहाए खाए से होती है जिसमें व्रत धारी स्वच्छता और शुद्धता का पालन करते हुए स्नान करते हैं और स्वास्तिक भोजन ग्रहण करते हैं दूसरे दिन खरना मनाया जाता है तीसरे दिन संध्या अर्घ होता है, इसमें नदी या जलसा के किनारे जाकर सूर्य देव को अर्घ दिया जाता है चौथे दिन उषा अर्घ दिया जाता है इस दिन व्रती महिलाएं और परिवार के लोग सुबह जल्दी उठकर नहा धोकर सूर्योदय के समय नदी तालाब या किसी जल स्रोत में जाकर सूर्य देव और उनकी पत्नी छठी मैया को अर्ध देते हैं, आज मंगलवार की सुबह सूर्योदय का प्रातः समय 6:30 था इस दिन व्रती महिलाएं घाटों नदियों और तालाबों के पवित्र जल में खड़े होकर सूर्य देव की पूजा विधि विधान से करती है, महिलाए इस अवसर पर छठी मैया से अपने परिवार की सुख समृद्धि संतान की देखभाल उत्तम स्वास्थ्य और जीवन में नई ऊर्जा की कामना करती है इसके साथ चार दिनों तक के कठिन और 36 घंटे का निराजल उपवास का आज समापन हुवा। और अंतिम दिन उगते हुवे सूरज को अर्घ देने के बाद व्रत का पालन करते हुवे प्रसाद के रूप में ठेकुवा गुड़ केला नारियल और मुसम्मी आदि फल ग्रहण किया जाता है और परिवारजन आसपास के लोगो को बांटा जाता है, छठ पूजा हर कार्तिक माह की शुक्ल पक्ष की सृष्टि तिथि में होती है यह पूजा न केवल सूर्यदेव और छठी मैया को समर्पित है बल्कि यह मानना है कि इसे करने से घर में सुख समृद्धि और सकारात्मक ऊर्जा आती है
अंतिम दिन के पूजा की विधि विधान
पूर्व दिशा की ओर मुंह करके उगते सूरज को अर्घ देते है क्योंकि सूर्य देव का उदय पूर्व दिशा से होता है सूर्य की पहली किरण की दीक्षित पर दिखाई देते हैं पीतल के कलश के लोटे में जल भरकर उसमें सुपारी फल चावल और दूब घास डालकर अर्घ अर्पित करते है अर्घ देते समय सूर्य देव के नाम का जाप करते है, उदय अर्थ का महत्व के अनुसार सूर्य को अर्घ देने से व्यक्ति के जीवन में अनेक लाभ होते हैं जल अर्पित करने से न केवल शरीर में ऊर्जा और आत्मविश्वास भी मिला मिलता है जो व्यक्ति नियमित रूप से सूर्य देव को अर्घ देता है उसके जीवन में मान-सम्मान प्रतिष्ठित और नेतृत्व क्षमता में वृद्धि होती है
छठ पूजा की कथा
प्राचीन काल में सूर्यवंशी राजा प्रियव्रत और उनकी पत्नी मालिनी बहुत समय तक निःसंतान रहे।
राजा उदास रहते थे। एक दिन महर्षि कश्यप ने उन्हें बताया:“कार्तिक मास के शुक्ल पक्ष की षष्ठी तिथि को सूर्य देव और षष्ठी माता (छठ मइया) की विधि-विधान से पूजा करो। कठोर उपवास, अर्घ्य और दंडवत प्रणाम से संतान सुख मिलेगा।”राजा-रानी ने चार दिनों का कठिन व्रत रखा:
- नहाय-खाय → स्नान कर शुद्ध भोजन
- खरना → गुड़ की खीर, रोटी का प्रसाद
- संध्या अर्घ्य → डूबते सूर्य को अर्घ्य
- उषा अर्घ्य → उगते सूर्य को अर्घ्य
षष्ठी माता प्रसन्न हुईं। सूर्य देव ने स्वयं आशीर्वाद दिया।
कुछ समय बाद रानी मालिनी को पुत्र रत्न की प्राप्ति हुई — जिसका नाम अंग रखा गया।
तब से यह व्रत “छठ व्रत” या “छठ पूजा” कहलाया, जो संतान, सुख-समृद्धि और आरोग्य के लिए किया जाता है।
